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टूट गई किसान एकता:जो किसान दिल्ली बॉर्डर पर एकजुट थे, वे गांव लौटकर पार्टी, समुदाय, जाति में बंट गए; हॉट सीट समराला से रिपोर्ट…

केसर सिंह, करम सिंह और हरदीप सिंह.. ये तीनों पंजाब के लुधियाना जिले के ओटालां गांव के किसान हैं। 2020 में जब मोदी सरकार बिना चर्चा के कृषि कानून ले आई तो ये किसान ‘काले कानूनों’ खिलाफ प्रदर्शन में कूद पड़े। स्थानीय टोल घेरने से लेकर दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर प्रदर्शन तक.. ये किसान एकजुट होकर डटे रहे।

पूरे देश ने पंजाब के किसानों की एकता की मिसाल मानी, लेकिन अब जब ये किसान लड़ाई जीतकर अपने गांवों में लौट गए हैं और पंजाब विधानसभा चुनाव हो रहे हैं तो ये फिर से अपनी पुश्तैनी पार्टियों, जातियों, समुदायों के हिसाब से ही वोट देने का मन बना रहे हैं।

यहां से बलबीर सिंह राजेवाल चुनाव मैदान में
जिन किसानों की हम कहानी बता रहे हैं ये पंजाब चुनाव में लुधियाना की समराला सीट के वोटर है। किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल की एंट्री से समराला हॉटसीट बन गई है। राजेवाल किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा का हिस्सा थे, इसके बाद 22 किसान संगठनों ने मिलकर संयुक्त समाज मोर्चा (SSM) का गठन किया और चुनाव लड़ने का ऐलान किया। अब तक SSM 110 से ज्यादा टिकट बांट चुकी है और चुनाव में पूरी ताकत से उतरने का दावा कर रही है।

लुधियाना जिले के समराला में ओटालां गांव के किसान हरदीप सिंह और उनके साथी किसान
लुधियाना जिले के समराला में ओटालां गांव के किसान हरदीप सिंह और उनके साथी किसान

लेकिन चुनाव लड़ रहे संयुक्त समाज मोर्चा की राह बहुत कठिन है। पंजाब के सबसे बड़े किसान यूनियन बीकेयू (एकता उगराहां) समेत 10 किसान संगठनों ने राजेवाल को समर्थन देने से इनकार किया है। वहीं SSM में खुद भी दरार पड़ गई है। टिकट नहीं मिलने से नाराज कुछ नेताओं ने मिलकर ‘सांझा पंजाब मोर्चा’ का गठन किया है। इन नेताओं ने आरोप लगाया है कि बलबीर सिंह राजेवाल और चढूनी जैसे किसान नेताओं ने किसान आंदोलन से जुड़े नेताओं की अनदेखी करते हुए दूसरी पार्टी के नेताओं को टिकट दिया है।

समराला टाउन में संयुक्त समाज मोर्चा (SSM) का दफ्तर, जिस वक्त हम यहां पहुंचे इस दफ्तर का उद्घाटन ही हो रहा था।
समराला टाउन में संयुक्त समाज मोर्चा (SSM) का दफ्तर, जिस वक्त हम यहां पहुंचे इस दफ्तर का उद्घाटन ही हो रहा था।

गांव ने किसान आंदोलन के लिए 6 लाख रुपये चंदा इकट्ठा किया
फिर से लौटते हैं समराला के ओटालां गांव में। करीब 3200 वोट वाले इस गांव में ज्यादातर किसान ही हैं। दिल्ली की सीमाओं पर चलने वाले आंदोलन में इस गांव के हर घर से लोग पहुंचे। किसान यूनियन के सदस्य हरदीप सिंह बताते हैं कि उन्होंने पहले स्थानीय स्तर पर प्रदर्शन करने शुरू किए।

इसके बाद जब दिल्ली के लिए जत्थेबंदियां जाने लगीं तो ओटालां गांव के लोगों ने भी चंदा जुटाया और अपनी ट्रैक्टर ट्राली लेकर दिल्ली के लिए निकल पड़े। सिर्फ इसी गांव से किसान आंदोलन के लिए करीब 6 लाख रुपये का चंदा इकट्ठा हुआ। इस चंदे की रकम को दिल्ली भेजा जाता था और इसी से आंदोलनकारियों के आने-जाने और रहने का खर्च निकाला जाता था। किसान आंदोलन की कहानियां बताते हुए और आंदोलन की एकता को याद करते हुए हरदीप भावुक हो जाते हैं।

ओटालां गांव में करीब 3200 वोट हैं और यहां रहने वाले ज्यादातर लोग किसानी से जुड़े हैं।
ओटालां गांव में करीब 3200 वोट हैं और यहां रहने वाले ज्यादातर लोग किसानी से जुड़े हैं।

अब हरदीप के गांव की किसान एकता पार्टियों, समुदायों और जातियों में बंट गई है। हरदीप कहते हैं कि किसान भी अलग-अलग पार्टियों से जुड़े हुए हैं। जैसे कि हम लोग पुश्तैनी तौर पर अकाली दल को वोट देते आए हैं, वहीं कुछ किसान कांग्रेस को, तो कुछ AAP को पसंद करते हैं।

जब हमने पूछा कि इस बार के चुनाव में आपके मुद्दे क्या होंगे? जवाब मिला- ‘MSP की गारंटी दी जाए, कृषि सुधार किए जाएं और मंडियां बढ़ाई जाएं।’ तो हमने पूछा कि क्या किसान नेता राजेवाल को वोट देंगे? इस पर हरदीप ने चुप्पी साध ली।

‘किसान यूनियन के नेताओं को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए’
समराला में ही आने वाले गांव दयालपुरा का हाल भी दूसरे गांवों की तरह ही है। इस गांव के भी ज्यादातर घरों से किसान दिल्ली किसान मोर्चा में शामिल होने गए थे। गांव ने मिलजुल कर चंदा भी किया था, लेकिन गांव के रसूखदार किसान कहते हैं कि हम किसी ऐसी पार्टी को वोट देना चाहते हैं, जिससे हमारा वोट बर्बाद ना हो।

गांव के लखबीर सिंह लक्खा से हमने पूछा कि आप किसान नेता का समर्थन क्यों नहीं कर रहे? इस पर वे कहते हैं कि राजेवाल को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था। किसान यूनियन को सरकारों की पहरेदारी करना चाहिए और अगर सरकारें कोई गलत काम करें तो उनका विरोध करना चाहिए। चुनाव लड़ने से ये अपनी साख खो देंगे

खुद लखबीर सिंह और उनके गांव के ज्यादातर किसान कहते हैं कि हमारा गांव अकाली दल के उम्मीदवार का समर्थन कर रहा है। इसकी वजह ये है कि लखबीर का परिवार पुश्तैनी तौर पर अकाली दल को समर्थन करता रहा है और इस बार भी करने का मन बना रहे हैं।

समराला से चुनाव लड़ रहे किसान नेता राजेवाल चुनावी तैयारियों में जुट गए हैं। जिस वक्त हम उनसे मिलने पहुंचे वो अपने पार्टी दफ्तर का उद्घाटन कर रहे थे। दफ्तर के बाहर कार्यकर्ताओं की चहल-पहल थी, पगड़ी पहने कई किसान अपनी मोटरसाइकिल, गाड़ियां लेकर राजेवाल को अपना समर्थन देने आए हुए थे।

 उन्होंने कहा कि ‘हम किसानों की जंग दिल्ली से जीतकर लौटे हैं, लेकिन लोग ये भी चाहते हैं कि राजनीति में जो गंदगी फैली है उसे भी इसी आंदोलन से निकला नेतृत्व ठीक करे। 32 में से 22 किसान संगठन संयुक्त समाज मोर्चा के साथ हैं।

किसानों के चुनाव लड़ने से आप को बड़ा नुकसान
किसान नेताओं के चुनाव लड़ने की वजह से समराला समेत कई सारी सीटों पर जबरदस्त मुकाबला होने वाला है। कई सीटों पर आम आदमी पार्टी, अकाली दल, बीजेपी, कांग्रेस और संयुक्त समाज मोर्चा (SSM) के तगड़े उम्मीदवार आमने-सामने होंगे।

आप नेता अरविंद केजरीवाल ने भी खुले तौर पर स्वीकार किया है कि किसानों के चुनाव लड़ने से आम आदमी पार्टी को नुकसान उठाना पड़ेगा। किसान नेता राजेवाल और अरविंद केजरीवाल की सीट शेयरिंग को लेकर मुलाकात भी हुई थी, लेकिन दोनों में सहमति नहीं बन सकी।

‘20-25% जट्टों को ही रिझाते हैं किसानों के मुद्दे’
राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि पंजाब चुनाव की बहस से किसानों के मुद्दे गायब दिख रहे हैं। वहीं किसान नेता चुनाव में जोर जरूर लगा रहे हैं, लेकिन असली लड़ाई दो-तीन पार्टियों के बीच ही है। इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट एंड कम्यूनिकेशंस के डायरेक्टर प्रो. प्रमोद कुमार कहते हैं कि पंजाब चुनाव में किसान और किसानों के मुद्दे जैसे MSP का कानूनी अधिकार, एग्रीक्लचर डायवर्सिफिकेशन, भूमिगत जलस्तर का नीचे जाना.. इन मुद्दों की चर्चा ही नहीं हो रही। इसके पीछे कारण है नेताओं को पता है कि किसानों के मुद्दों के बिना भी चुनाव जीत सकते है, जाट किसान 20-25% ही हैं और इनको रिझाकर चुनाव नहीं जीता जा सकता।

‘SSM को हार मिली, तो किसानों के लिए बड़ा झटका होगा’
एग्रीकल्चर पॉलिसी एक्सपर्ट देविंदर शर्मा कहते हैं कि जिस आंदोलन को पंजाब के समाज ने चलाया, अब उसी राज्य में होने वाले चुनाव में किसानों के मुद्दे गायब हैं। हम जो इलेक्टोरल डिबेट सुन रहे हैं उसमें ड्रग्स, रेत माफिया, छींटाकशी ही ज्यादा हो रही है, किसान और किसानी के मुद्दों पर बहस सुनने में नहीं आ रही। ये साफ है कि इस बार भी चुनाव असल मुद्दों पर ना होकर जाति, धर्म, समुदाय पर सीमित होता दिख रहा है। अगर SSM चुनाव में हार जाती है तो ये किसानों के लिए झटका होगा। मुझे लगता है कि किसान नेताओं ने चुनाव लड़ने में जल्दबाजी की, इन्हें 2024 का लोकसभा चुनाव टारगेट करना चाहिए था।

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