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5 हजार साल पहले आई माचिस:1910 से भारत में बनने लगी; 15 साल में बने वर्ल्ड नं-1, अब सिमटा कारोबार

आपके किचन का चूल्हा कैसे जलता है? जरूर यह लाइटर या माचिस से जलता होगा। क्या आपको ये महसूस नहीं होता कि आज के बदलते वक्त में लोग माचिस को भूलने लगे हैं।

हम लाइटर के इतने आदी हो गए हैं कि हमें माचिस का ख्याल तक नहीं आता।पुराने जमाने में पत्थरों को रगड़ने से आग जलाई जाती थी। लेकिन यह तरीका इंसानों के लिए बड़ा ही मशक्कत भरा था। क्योंकि बारिश या कड़ाके की ठंड और बर्फ पड़ने के दौरान आग जलाना काफी मुश्किल था। इससे राहत तब मिली जब इंसान के हाथ माचिस लगी। माचिस ही ऐसी कमाल की चीज थी जिसने आग को इंसान की मुट्‌ठी और जेब तक में लाकर रख दिया।

माचिस के डिब्बे पर बने डिजाइन भारत की विविधता और अलग-अलग दौर को दर्शाते हैं।

आइए, अब बताते हैं माचिस का वो सफर जिसने दुनिया में क्रांति ला दी थी-

5 हजार साल पहले माचिस की तरह प्रयोग किए जाते थे लकड़ी के टुकड़े

माचिस का इतिहास बहुत पुराना है। 5 हजार साल से भी ज्यादा समय पहले प्राचीन मिस्र (Egypt) में गंधक में डुबोए गए चीड़ की लकड़ी के छोटे टुकड़े माचिस की तरह उपयोग किए जाते थे। हालांकि, मॉडर्न माचिस का विकास करीब 200 साल पहले ही हुआ।

एंटिमनी ट्राइसल्फाइड, पोटैशियम क्लोरेट और सफेद फॉस्फोरस का मिक्सचर, कुछ गोंद और स्टार्च के साथ मिलाकर उसे लकड़ी से बनी माचिस की तीली के सिरे पर लगाया जाता था तो उसे रगड़ने से हुई पैदा हुई गर्मी के कारण सफेद फॉस्फोरस जल उठता था।

मिस्र के लोग चीड़ की लकड़ी के एक सिरे पर गंधक लगाकर तीली बनाते थे।
मिस्र के लोग चीड़ की लकड़ी के एक सिरे पर गंधक लगाकर तीली बनाते थे।

इससे माचिस की तीली जलनी शुरू हो जाती। लेकिन सफेद फॉस्फोरस माचिस इंडस्ट्री में काम करने वालों और माचिस का उपयोग करने वालों, दोनों के लिए खतरनाक साबित हुआ।

चीन में माचिस की तीली जैसे तरीकों का इस्तेमाल 950 ईस्वी में देखने को मिला। चीन के लोग ऐसी स्टिक्स का इस्तेमाल करते थे जिनमें आग जलाने वाले केमिकल लगे होते थे। लेकिन आगे चलकर यह तरीका व्यवस्थित रूप नहीं ले सका।

आजकल माचिस की तीली के सिरे पर केवल एंटिमनी ट्राइसल्फाइड और पोटैशियम क्लोरेट लगा रहता है। रगड़ने वाली सतह पर कांच का बारीक पाउडर और थोड़ा सा लाल फॉस्फोरस लगाते हैं जो कम खतरनाक होता है। जब माचिस की तीली को खुरदरी सतह पर रगड़ा जाता है तो कुछ लाल फॉस्फोरस, सफेद फॉस्फोरस में बदल जाता है।

यह तेजी से माचिस की तीली के सिरे पर लगे पोटैशियम क्लोरेट से रिएक्शन कर ऐसी गर्मी पैदा करता है कि एंटिमनी ट्राइसल्फाइड जलनी शुरू हो जाती है।

आपको जानकर ताज्जुब होगा, जिस लाइटर ने आज पुरुषों की जेब और महिलाओं के पर्स में पैठ बना ली है, वह कभी माचिस की छोटी सी डिब्बी से पहले मैदान में उतरा था।

माचिस से पहले आया था लाइटर

1823 में माचिस से कुछ साल पहले लाइटर का आविष्कार किया गया था। तब यह साइज में बहुत बड़ा और इस्तेमाल में मुश्किल था। इसीलिए ये लोगों में पॉपुलर नहीं हो सका। लाइटर के लिए हाइड्रोजन गैस का इस्तेमाल किया जाता, जिसे पहली बार केमिकल रिएक्शन के जरिए चिंगारी से जलाया जाता।

शुरुआती दौर का लाइटर कुछ इस तरह से दिखता था।

इस तरह के लाइटर को 1823 में जर्मन केमिस्ट जोहान वोल्फगैंग डोबेरिनर (1780-1849) के प्रयास से बनाया गया था।

लाइटर को 20वीं शताब्दी की शुरुआत में तब लोकप्रियता मिल पाई, जब इसमें जल्दी आग पकड़ने वाली नैप्थलीन गैस का इस्तेमाल किया जाने लगा। इसके बाद 1932 में जिप्पो लाइटर (Zippo lighter) पेश किया गया जिसने माचिस की अहमियत को कुछ कम करने की कोशिश की। लेकिन इस दौरान माचिस ने दुनिया भर में अपनी अहमियत को बढ़ा दिया था। हालांकि, 1950 के दशक में ब्यूटेन लाइटर (butane lighters) की शुरुआत ने लाइटर को और भी अधिक लोकप्रिय बना दिया।

शुरुआत में खतरनाक साबित हुआ माचिस का बनना

माचिस 1827 में ईजाद हुई। इसे ब्रिटेन के साइंटिस्ट जॉन वॉकर ने उस समय बनाया, जब उनके मन में ये ख्याल आया कि क्यों न पत्थर को रगड़ने से जलाई जाने वाली आग को माचिस की शक्ल में तैयार करके दुनिया को दिया जाए।

जॉन वॉकर का आविष्कार उस जमाने में खतरनाक भले ही साबित हुआ लेकिन कुछ समय बाद ही इस अहम कार्य ने दुनिया में क्रांति ला दी।
जॉन वॉकर का आविष्कार उस जमाने में खतरनाक भले ही साबित हुआ लेकिन कुछ समय बाद ही इस अहम कार्य ने दुनिया में क्रांति ला दी।

जॉन वॉकर ने एक ऐसी तीली बनाई, जो किसी भी खुरदरी जगह पर रगड़ने से जल उठती। लेकिन, ये प्रयोग काफी खतरनाक साबित हुआ। कई लोग इससे झुलस गए।

दरअसल, माचिस की तीली पर सबसे पहले एंटिमनी सल्फाइड, पोटैशियम क्लोरेट और स्टार्च का इस्तेमाल किया गया था। रगड़ने के लिए रेगमाल लिया गया। नतीजा ये हुआ कि माचिस की तीली जैसे ही रेगमाल पर रगड़ी गई, छोटा सा विस्फोट हुआ और जलने पर बदबू भी आती।

भारतीयों ने माचिस बनाने के 100 साल बाद शुरू किया प्रोडॅक्शन

साल 1832 में फ्रांस में एंटिमनी सल्फाइड की जगह माचिस की तीली पर फॉस्फोरस का इस्तेमाल किया गया। इससे तीली जलने पर निकलने वाली गंध दूर हो गई। लेकिन, अब इससे निकलने वाला धुंआ काफी जहरीला और खतरनाक हो गया। 1855 में स्वीडन ट्यूबकर ने दूसरे केमिकल्स को मिलाकर एक सेफ माचिस तैयार की, जिसका इस्तेमाल हम आज भी कर रहे हैं।

जापानी प्रवासियों ने कोलकाता में माचिस बनाई

भारत में पहली बार 1910 में जापानी प्रवासियों ने कोलकाता में माचिस बनाना शुरू किया था। लेकिन चूंकि दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया। इस वजह से माचिस का कारोबार तमिलनाडु शिफ्ट हो गया। साल 1927 में शिवाकाशी में नाडार बंधुओं ने माचिस का उत्पादन शुरू किया। तब से आज तक तमिलनाडु मैच बॉक्स इंडस्ट्री का गढ़ बना हुआ है।

माचिस की तीली के लिए सबसे बेहतरीन है अफ्रीकन ब्लैकवुड की लकड़ी

माचिस की तीली कई तरह की लकड़ियों से बनती है। सबसे अच्छी माचिस की तीली अफ्रीकन ब्लैकवुड से बनती है। हालांकि, ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए कुछ कंपनियां तेजी से जलने वाली लकड़ी का इस्तेमाल करती हैं।

भारत में पापुलर, वाइट पाइन जैसी लकड़ियों से बनती है तीली

भारतीय माचिस की तीलियां कई तरह के पेड़ों की लकड़ियों से बनी होती हैं, लेकिन सबसे ज्यादा वाइट पाइन और ऐस्पन पेड़ों की लकड़ी से बनाई जाती हैं। भारत में पापुलर नाम के पेड़ की लकड़ी भी माचिस की तीली बनाने के लिए काफी अच्छी मानी जाती है।

इस दिवाली में खूब चली थी मैचस्टिक गन

इस बार की दिवाली में पहली बार माचिस-तीली गन (मैच स्टिक गन) भी खूब चली थी। मैच स्टिक गन के तमाम वीडियो यूट्यूब पर हैं कि बच्चों को बेहद पसंद आ रहे हैं। मैच स्टिक गन ऑनलाइन शॉपिंग साइट अमेजन, फ्लिपकार्ट पर आसानी से उपलब्ध हैं।

वर्ल्ड हेल्थ डे की वजह से लुप्त हो गया वर्ल्ड मैचबॉक्स डे

हर साल 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। पर क्या आप जानते हैं कि 7 अप्रैल को ही मैचबॉक्स डे (दियासलाई दिवस) भी होता है जो कि माचिस के इन्वेंटर जॉन वाकर से जुड़ा है। माचिस की तीली की पहली बिक्री को 7 अप्रैल 1827 को उन्होंने अपने बहीखाते में लिखा था।

माचिस से जुड़े आइटम कलेक्ट करने वाले कहलाते हैं फेलूमेनिस्ट

जो लोग माचिस के अलग-अलग तरह के डिब्बे, तीलियां, किताबें या फिर माचिस के कवर संजोकर रखते हैं तो उन्हें फेलूमेनिस्ट (phillumenist) कहा जाता है।

मैचबॉक्स लाइटर, मैचबॉक्स गिफ्ट हैम्पर, मैचबॉक्स कैलेंडर सहित कई ऐसी चीजें हैं जिनको फेलूमेनिस्ट रखना पसंद करते हैं।

जानी मानी भारतीय फेलूमेनिस्ट श्रेया कातूरी पिछले 7 साल से मैचबॉक्स आर्ट कलेक्शन का काम कर रही हैं। अमेरिका में पढ़ाई कर चुकीं श्रेया ‘द स्टोरी ऑफ मैचबॉक्स आर्ट’ पर वर्कशॉप भी कर चुकी हैं। दिल्ली की रहने वाली श्रेया इंस्टाग्राम पर @artonabox नाम से पेज बनाए हैं और मैचबॉक्स आर्ट कल्चर को लेकर जागरूक करने में लगी हुई हैं।

एक इंटरव्यू में श्रेया ने बताया था कि माचिस पर आर्ट को लेकर लगातार बदलाव होते आए हैं।

पहले, माचिस पर राष्ट्रीय आंदोलन दर्शाए जाते थे, लेकिन अब नई छपाई टैक्नीक से इसका डिजिटलीकरण होना शुरू हो गया है। जबकि पहले हाथ से बने राष्ट्रीय झंडे या पशुओं की फोटो देखी जा सकती थी। अब आप आधुनिक समय के ब्रांड एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, होंडा कार जैसी फोटो और माेनोग्राम देख सकते हैं।

सरकार पर तंज कसने के लिए गानों में किया मैचबॉक्स का इस्तेमाल

गीगलिंग मंकी स्टूडियो की महक मल्होत्रा ने मैचबॉक्स आर्ट पर फोकस करते हुए कमाल के एनिमेटेड डिजाइन बनाए हैं जिनका इस्तेमाल गीतकार और गायक राघव मीटल ने अपने वीडियो में बड़े शानदार ढंग से किया है। मैचबॉक्स के जरिए सरकार पर तंज कसने के लिए भी मीटल के गाने काफी लोकप्रिय हुए हैं।

माचिस की तीलियों से 6 दिनों में बना दिया था भीष्म टैंक का मॉडल

इस साल 15 जनवरी को सेना दिवस के मौके पर पुरी के रहने वाले कलाकार शाश्वत रंजन साहू ने माचिस की तीलियों से भारतीय सेना का टैंक भीष्म 90 बनाया था। जिसको देखकर सैनिकों और आम जनता में जोश कई गुना हो गया था।

शाश्वत को माचिस की तीलियों से ये टैंक बनाने में पूरे 6 दिन लगे और उन्होंने 2,256 माचिस की तीलियों से सेना के इस टैंक को तैयार किया है।

दुनिया में सबसे बड़ी तीली का गिनीज वर्ल्ड बुक रिकॉर्ड

 

माचिस की तीली का भी अपना रिकॉर्ड है। 27 नवंबर, 2004 को एस्टोनिया में एस्टोनियन मैच लिमिटेड ने 20 फीट 5 इंच लंबी (6.235 मीटर) माचिस की तीली बनाई। इस तीली को बनाने का क्रेडिट एस्टोनिया के नागरिक जेन्नस रूबेन के नाम है। इस तीली को उन्होंने विलजांडी के उगला थिएटर में प्रदर्शित किया था।

देश में मैच बॉक्स इंडस्ट्री की हालत खस्ता

पहले माचिस का उपयोग चूल्हा जलाने के लिए किया जाता था, लेकिन गैस लाइटर के बढ़ते उपयोग के कारण माचिस की जगह गैस लाइटर ने ले ली है। आज तरह-तरह के और सस्ते लाइटर बाजार में मौजूद हैं।कच्चा माल और लेबर मिलाकर माचिस बनाने में ज्यादा लागत आती है जिसकी वजह से माचिस का उपयोग कम होने लगा है। पहले भारत अफ्रीकी देशों में माचिस का ज्यादा निर्यात करता था, लेकिन अब वहां भी लोकल ब्रांड का बोलबाला है। ऐसे में हर तरह से माचिस उद्योग पर असर पड़ता जा रहा है।तमाम किस्म के लाइटरों से जूझते हुए माचिस आने वाले वक्त में पुराने जमाने की चीज बनकर रह जाए और आने वाली पीढ़ियों को सिर्फ तस्वीरों में नजर आए। अगर इस इंडस्ट्री पर ध्यान न दिया गया तो सबसे बड़ी इंसानी खोज- आग को कैद करने वाली माचिस चुटकुलों, किस्सों और कहानियों के बीच अपनी ही आग में झुलसकर गुम हो जाएगी।

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