पंजाब में दलितों का कितना असर? जानिए क्या रंग लाएगा SAD-BSP का गठबंधन
जानिए दलित, बीएसपी और शिअद का ये गठजोड़ पंजाब की कुर्सी पाने में कितना असरदार होगा.पंजाब में विधानसभा के चुनाव की तैयारी हैं.होशियारपुर, कपूरथला, जालंधर और नवांशहर में हैवी है बहुजन समाज पार्टी

कोरोना के मामलों में गिरावट आने के साथ ही देश में सियासत की घटनाएं अब सुर्खियां बंटोरने लगी हैं. यूपी, राजस्थान और बंगाल में पिछले कुछ दिनों से सियासी हलचल तेज है, लेकिन इसी बीच पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (SAD) और बहुजन समाज पार्टी (BSP) के गठबंधन की खबरों ने एक नया माहौल बना दिया है. पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस में अदरूनी कलह की खबरें किसी से छिपी नहीं हैं. इसी बीच शिअद और बीएसपी के गठबंधन ने कई तरह की अटकलों को जन्म दिया है.
शिअद लंबे समय तक सत्ता में रही है और उसे पंजाब की राजनीति की बारीकियां बखूबी पता हैं. लेकिन दूसरी ओर बीएसपी जिसका उदय तो पंजाब से है लेकिन गढ़ यूपी उसकी जमीनी हालत इन दोनों राज्यों में हिली हुई है. ऐसे में बड़ा सवाल ये उठता है कि आखिर पंजाब में इस गठबंधन का कितना असर होने वाला है. आइए जानते हैं कि दलित, बीएसपी और शिअद का ये गठजोड़ पंजाब की कुर्सी पाने में कितना असरदार होगा.पंजाब में अगले साल ही विधानसभा के चुनाव हैं.
गठबंधन किन शर्तों पर हुआ
शिअद और बीएसपी की कहानी पर आने से पहले ये जान लेते हैं कि आखिर ये गठबंधन किन शर्तों पर हुआ है. दरअसल, शिअद ने कुछ समय पहले ही खेती कानूनों के मुद्दे पर बीजेपी से अपना पुराना गठबंधन तोड़ा था. शिअद और बीएसपी का ये गठबंधन करीब 25 सालों के बाद हुआ है. तय ये हुआ है कि अकाली दल ने बीएसपी के लिए 20 सीटें छोड़ने का ऐलान किया है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बीएसपी माझा में 5, दोआबा में 8 और मालवा इलाके में 7 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. इनके अलावा बची हुई 97 सीटों पर अकाली दल अपने उम्मीदवार उतारेगी. पंजाब में कुल 117 विधानसभा सीटें हैं. इससे पहले दोनों दलों ने 1996 के विधानसभा चुनाव में एक साथ चुनाव लड़ा था. लेकिन यह गठबंधन एक साल ही चला और अकाली दल 1997 में बीजेपी के साथ आ गया था.
पंजाब में दलित कितना असरदार
अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर पंजाब में दलित वोट बैंक कितना असरदार है. अगर संख्या के हिसाब से देखेंगे तो आप पाएंगे की पूरे देश में पंजाब ऐसा राज्य है जहां दलितों की आबादी का प्रतिशत सबसे ज्यादा है. पूरे राज्य की करीब 32 फीसदी आबादी दलित है. अब इस संख्या को आप सियासत की कसौटी पर उतारें तो लगेगा की 32 फीसदी वोट अगर किसी भी एक पार्टी को मिलें तो ये तय है कि राज्य में सरकार उसी की बनेगी.
क्योंकि आमतौर पर जिस भी पार्टी की सरकार बनती है उसके वोटों का प्रतिशत इसी के इर्द गिर्द होता है. लेकिन अब तक पंजाब के राजनीतिक इतिहास में कांग्रेसी सत्ता में ऐसा वाकया पहली दफा हुआ है कि कोई दलित राज्य का मुख्यमंत्री चन्नी के रूप में बना हो।
इसका कारण भी दलित ही हैं
अब सवाल उठता है कि इतनी बड़ी दलित आबादी लेकिन सियासत में कोई पहचान नहीं. इसका कारण तलाशेंगे तो आप पाएंगे की यहां का दलित आपस में बंटा है. पंजाब के कई जानकारों ने अपने लेखों में साफतौर पर कहा है कि- पंजाब में जाति का उस तरह से कभी उभार नहीं हो पाया जैसे उत्तर प्रदेश में है. इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि पंजाब का दलित बंटा हुआ है. कुछ तबकों की वफ़ादारी अकाली दल की तरफ़ और कुछ की कांग्रेस की तरफ़ रही है.
अब आते हैं बीएसपी के सवाल पर
बीएसपी के सवाल पर आने से पहले इस पार्टी के नायक की कहानी पर चलना होगा. दरअसल, हम बात कर रहे हैं कांशीराम की. कांशीराम जिन्हें दलितों के बड़े नेता के रूप में देखा जाता है. उनका जन्म पंजाब के होशियारपुर में ही हुआ था. उनका परिवार आज भी पंजाब में ही रहता है. लेकिन कांशीराम खुद भी दलितों को पंजाब में लामबंद नहीं कर पाए. वहीं, उनकी बनाई पार्टी बीएसपी यूपी में कई सालों तक सत्ता में रही. पंजाब में बीएसपी के सवाल को देखें तो इस राज्य में बीएसपी की पकड़ धीरे-धीरे कमजोर सी होती गई है. 1992 की विधान सभा चुनाव में बसपा को नौ सीटें मिलीं थीं. जबकि वोटों का प्रतिशत 16 था लेकिन जबकि 2014 के लोक सभा चुनाव में पार्टी का वोट शेयर 1.9 फ़ीसदी रह गया था .जबकि 2019 में उनका वोट प्रतिशत 2 से भी कम हो गया.
लेकिन एक कहानी ऐसी भी
ये सच है कि पंजाब की दलित आबादी कभी लामबंद नहीं हो सकी है. लेकिन वो अंग्रेजी की एक मशहूर लाइन है- ‘Politics is the art of the possible’ यानी राजनीति संभावना की कला है. कभी भी कुछ भी हो सकता है. पंजाब में दलितों पर दांव लगाए जाते रहे हैं. पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भी दलितों पर बड़ा दांव खेला था. उन्होंने तो यहां तक कहा था कि अगर वो सत्ता में आए तो उपमुख्यमंत्री भी दलित ही होगा. वहीं, पंजाब की सामाजिक हलचल को देखेंगे तो पिछले कुछ समय से धीमे-धीमे से ही दलित वर्ग अब अपनी आवाज़ उठाने लगा है. ऐसे में ये गठबंधन कितना असर दिखाएगा ये तो वक्त ही बताएगा.
SAD BSP Alliance अकाली दल ने ऐलान किया है कि अगर उसकी सरकार बनती है तो डिप्टी सीएम बीएसपी का होगा। 1996 में बीएसपी और अकाली दल ने गठबंधन में चुनाव लड़ते हुए 13 में से 11 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी।
दोआबा में बीएसपी ने दिखाई थी ताकत
बीएसपी को 2017 के विधानसभा चुनाव में महज डेढ़ फीसदी वोट मिले लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में ये बढ़कर 3.52 फीसदी पहुंच गया। पंजाब में बीएसपी की ताकत पर नजर डालें तो दोआबा इलाके में पार्टी का असर है। होशियारपुर, कपूरथला, जालंधर और नवांशहर इसी इलाके में आते हैं। बहुजन समाज पार्टी ने इस साल फरवरी में हुए नगर निकाय चुनाव के दौरान यहां अच्छी मौजूदगी दर्ज कराई थी। इन नगर निगमों में पार्टी ने 17 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं इन चार जिलों में बीजेपी सिर्फ 8 सीटों पर कामयाब हुई थी। दूसरी ओर अकाली दल के सिंबल पर 20 उम्मीदवार जीते थे। दोआबा इलाके में आम आदमी पार्टी ने भी नगर निगम की 11 सीटें जीती थीं।
मायावती बोलीं- ऐतिहासिक कदम, अभी से जुट जाएं
मायावती ने गठबंधन दौरान सिलसिलेवार तीन ट्वीट करते हुए कहा था कि, ‘पंजाब में आज शिरोमणि अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी द्वारा घोषित गठबंधन एक नई राजनीतिक और सामाजिक पहल है, जो निश्चय ही यहां राज्य में जनता के बहु-प्रतीक्षित विकास, प्रगति व खुशहाली के नए युग की शुरुआत करेगा। इस ऐतिहासिक कदम के लिए लोगों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। वैसे तो पंजाब में समाज का हर तबका कांग्रेस पार्टी के शासन में यहां व्याप्त गरीबी, भ्रष्टाचार व बेरोजगारी आदि से जूझ रहा है, लेकिन इसकी सबसे ज्यादा मार दलितों, किसानों, युवाओं व महिलाओं आदि पर पड़ रही है, जिससे मुक्ति पाने के लिए अपने इस गठबंधन को कामयाब बनाना बहुत जरूरी। साथ ही, पंजाब की समस्त जनता से पुरजोर अपील है कि वे अकाली दल व बीएसपी. के बीच आज हुए इस ऐतिहासिक गठबंधन को अपना पूर्ण समर्थन देते हुए यहां 2022 के प्रारम्भ में ही होने वाले विधानसभा चुनाव में इस गठबंधन की सरकार बनवाने में पूरे जी-जान से अभी से ही जुट जाएं।’
मांझा-मालवा में अकाली दल की पैठ
25 साल बाद अकाली दल और बीएसपी साथ आए हैं। बात करें माझा और मालवा इलाके की तो यहां अकाली दल की तगड़ी पैठ रही है। मालवा इलाके में 67 विधानसभा सीटें आती हैं। बीजेपी के साथ गठबंधन में अकाली दल को यहां हिंदू वोटों का लाभ मिलता रहा है। लेकिन इस बार बीजेपी से अलग होने की वजह से अकाली दल ने रणनीति बदली है। सुखबीर सिंह बादल ने इलाके में लगातार दौरे किए हैं। दलितों के साथ-साथ हिंदू वोटरों को भी पाले में करने के लिए पार्टी जुगत लगा रही है। अकाली दल को पता है कि पंजाब की दो ध्रुव वाली राजनीति में सत्ता के लिए 40 प्रतिशत या उसके आसपास वोट हासिल करना जरूरी है। आम आदमी पार्टी ने पिछले चुनाव में जरूर पैठ बनाई थी। लेकिन इस बार चुनाव से पहले ही पार्टी बिखरी दिख रही है।
1996 में बीएसपी-अकाली ने जीत ली थीं 11 लोकसभा सीटें
अकाली दल ने ऐलान किया है कि अगर उसकी सरकार बनती है तो डेप्युटी सीएम बीएसपी का होगा। 1992 में बीएसपी का वोट शेयर 16 फीसदी था और पार्टी ने 9 विधानसभा सीटें जीती थीं। वहीं 1996 में बीएसपी और अकाली दल ने गठबंधन में चुनाव लड़ते हुए 13 में से 11 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी। लेकिन 2014 का लोकसभा चुनाव आते-आते बीएसपी का वोट शेयर 2 प्रतिशत से कम हो गया। 2019 में भी बीएसपी का यही हाल रहा। दलित वोटों के ट्रांसफर और अपने बेस वोट बैंक के सहारे अकाली दल चुनावी वैतरणी पार करने की सोच रही है। हालांकि यह इतना आसान भी नहीं है।
क्यों आसान नहीं दलित वोटों का ट्रांसफर
अब तक के चुनावों को देखें तो पंजाब में यूपी की तरह जाति का उभार नहीं हुआ है। इसकी एक वजह यह है कि सिख धर्म में जाति आधारित समाज नहीं रहा है। यहां दलितों में वाल्मीकि, रविदासी, कबीरपंथी और मजहबी सिख जैसे टुकड़ों में बंटे समुदाय हैं। इनमें से कुछ तबके कांग्रेस की तरफ तो कुछ अकाली के खेमे में रहे हैं। ऐसे में यहां दलित कभी वोट बैंक नहीं बन पाया। अब 2022 के चुनाव में देखना दिलचस्प होगा कि क्या दलित समुदाय अकाली दल के पक्ष में गोलबंद होता है?



