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शिंगणापुर वो गांव जहां शनिदेव का हुआ जन्म:घरों के दरवाजे पर कुंडी नहीं, मान्यता ये कि चोरी की तो अंधे हो जाएंगे

शिरडी से अंदाजन 75 किमी और अहमदनगर शहर से 40 किमी दूर है शनि शिंगणापुर गांव। इस गांव को शनि महाराज का गांव कहा जाता है।

शनि शिंगणापुर गांव के लोग कोई भी शुभ कार्य या सामान की खरीदारी भी शनिवार वाले दिन ही करते हैं….

शिंगणापुर-:शनिदेव की पूजा करने, अपना ग्रहदोष उतारने यहां लोग देश के हर हिस्से से आते हैं।यहां के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था, जैसे कि इसी गांव में भगवान शनिदेव का जन्म हुआ था।

इस गांव के किसी भी घर में दरवाजा नहीं है। इस वजह से लोग कभी ताला नहीं लगाते। यहां चोरी की घटना नहीं होती।

क्या ये सब सुन-सुनाई बात है या वाकई सच? ये जानने के लिए शिरडी से दो घंटे का सफर तय करने के बाद मैं मराठा गांव शनि शिंगणापुर पहुंचती हूं।

पूरे रास्ते जहां भी मैं रुकी, सभी ने एक ही बात कही- शनि देव ने इस गांव को वरदान दिया है। उन्होंने यहां के लोगों को कहा है कि तुम लोग अपने-अपने कामकाज करो और मेरी सेवा करो, तुम सबकी रक्षा की जिम्मेदारी मेरी है।

शनि शिंगणापुर पहुंचकर मैं होटल की तलाश करने लगी। होटल के रिसेप्शन पर कोई बैठता नहीं था। टूरिस्ट को वहां लिखे फोन नंबर पर फोन करना पड़ता है तो कोई आता है। होटल सेलेक्ट करने के बाद मैं फ्रेश हुई और फील्ड में निकलने लगी।

देखा कमरे को लॉक करने के लिए ताला-चाबी नहीं है। होटल वाले से पूछा तो कहने लगे कि यहां ताला-चाबी नहीं लगाया जाता। होटल के कमरे में निजता का ध्यान रखकर दरवाजा लगा है। हर वक्त सब कुछ खुला ही रहता है।

मैंने कहा कि मेरा लैपटॉप है लेकिन…। इस पर कहने लगा कि कुछ नहीं होगा, कोई हाथ नहीं लगाएगा। मुझे उसकी बातों पर यकीन नहीं हो रहा था । मैं वहीं खड़ी रही, उसकी तरफ देखती रही।

मेरी बेचैनी देखकर वो मुस्कुराने लगा। कहा- मैडम आप बेफिक्र जाएं। उस पर विश्वास करने के अलावा मेरे पास कोई उपाय नहीं था। मैंने कमरे की कुंडी लगाई और निकल गई। कुछ देर तो दिल में धक-धक सी लगी रही कि अगर मेरा सामान कोई ले गया तो क्या होगा। फिर मैं काम में व्यस्त हो गई।

मंदिर जाने से पहले मैं इस इलाके में इसी बात को देखने के लिए थोड़ा घूमी। मुझे लगा कि हो सकता है कि सिर्फ होटल में ही दरवाजा न हो। मैं गलत थी। सरकारी स्कूल, दुकान सब बिना दरवाजे के थे। टूरिस्ट भी अपना सामान होटल में छोड़कर बेफिक्र यहां-वहां घूम रहे थे। मेरी नजर ATM पर पड़ी। उसमें भी कोई दरवाजा नहीं था। कई दुकानों पर कांच का दरवाजा दिखा, लेकिन ताला लगाने की सुविधा नहीं दिखी।

गांव के 45 वर्षीय गणेश भाई कहते हैं कि हमने तो अपने होशोहवास में कभी किसी को ताला लगाते हुए नहीं देखा है। यहां शनि देव खुद हर घर की निगरानी करते हैं। घर हो या दुकान कोई ताला नहीं लगाता है।

चोरी की बात पूछने पर कोई घटना याद करने के लिए लोगों को दिमाग पर जोर देना पड़ रहा है। इसके मायने हैं कि चोरी हुई ही नहीं है। अगर कभी किसी ने कोशिश की है तो शनिदेव ने उसे कड़ा दंड दिया है। शनिदेव के दंड से डरते लोग यहां किसी भी सामान को हाथ नहीं लगाते हैं।

मंदिर के मैनेजर संजय बनकर बताते हैं कि हमारे पास शनिदेव के कीमती गहने हैं। जिसमें पांच किलो सोने का मुकुट है। गले में पहनने वाले सोने और हीरे के भी कई गहने हैं। चूंकि यहां के एकमात्र बैंक में भी ताला नहीं लगाया जाता है इसलिए हमने वो गहने पास के सोनई गांव में एक बैंक के लॉकर में रखे हैं।

उस बैंक की तरफ से हमें वो लॉकर फ्री में दिया गया है। हर मुख्य त्योहार वाले दिन शनिदेव को वह गहने पहनाए जाते हैं।

शनि शिंगणापुर पर प्रो. बापूराव ढोंढूजी देसाई ने एक किताब लिखी है। वो नासिक से हैं। उनसे भी मैंने मुलाकात की। वो कहते हैं, ‘बाहर से आने वालों को यह बात अजीब लगती होगी, लेकिन यह सच है कि इस गांव के लोग अपना कीमती सामान, गहने, कैश सब सामने रखते हैं।

इन्हें नहीं पता है कि कीमती सामान को कहां छिपा कर रखा जाता है। यह लोग कई पुश्तों से ऐसे ही बड़े हुए हैं। ईंट-पत्थर से बने मकानों में दरवाजे तक नहीं हैं। यहां के बाथरूम में भी दरवाजा नहीं लगा है।

इतना कुछ जानने-समझने के बाद भी मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं हो रहा था। मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछा कि तुम्हें पता है कि यहां लोग चोरी क्यों नहीं करते?

वो कहने लगा कि ऐसा करने पर शनिदेव अंधा कर देते हैं और अगर हम गलत काम नहीं करेंगे तो वो हमारी रक्षा करेंगे।गांव के लोगों से बातचीत के बाद मैंने मंदिर का रुख किया।

मंदिर ट्रस्ट की तरफ से भी तेल की दुकाने हैं। जूते-चप्पल बाहर उतारकर मैं अंदर गई। शनिदेव को तेल चढ़ाने के लिए भी लंबी लाइन लगी है।भक्त तेल के साथ काले-सफेद तिल चढ़ा रहे हैं। कुछ लोग अपने घर से भी तेल लेकर आए हैं। रीत यह भी है कि यहां एक दफा तेल चढ़ाने के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखना होता है।

तेल चढ़ाने की लाइन को पार करके मैं मंदिर पहुंचती हूं। शनिदेव के मंदिर और मूर्ति के रूप में खुले आसमान के नीचे एक काले रंग की शिला है।

जिसके चारों ओर एक स्टील का जंगला बना हुआ है। यह शिला एक संगमरमर के चबूतरे पर है। कहा जाता हैं कि इस शिला की ऊंचाई 5 फुट 5 इंच और चौड़ाई 1.5 फुट है।

मंदिर की न दीवारें है, न छत, न ही कोई दरवाजा है, जिसका पट दूसरे मंदिरों की तरह खुलता बंद होता है। मैंने मंदिर के मैनेजर संजय से पूछा- शनिदेव की शिला के ऊपर कोई छत क्यों नहीं है?

वो कहते हैं कि एक दफा पास के एक पेड़ की कुछ टहनियां शनिदेव के मंदिर के ऊपर आ गई थीं, जिसके बाद ऐसी बिजली कड़की कि पूरा नीम का पेड़ ही जल गया।

वह बताते हैं कि शनिदेव सूर्य पुत्र हैं इसलिए उन्हें ऐसे ही खुले आसमान के नीचे निपट अकेले रहना पसंद है।

हमने देखा है कि उन पर छायामात्र भी आती है तो वह नष्ट हो जाती है।

आप खुद ही सोचो, यहां जिस तरह से देश-विदेश से लोग आते हैं तो अब तक तो आलीशान मंदिर बन गया होता। कई भक्त श्रद्धावश बोल चुके हैं कि मंदिर बनाने का सारा खर्च वो उठाएंगे। जब शनिदेव को पेड़ की टहनी की छाया मंजूर नहीं तो दीवार खड़ी करने का सवाल ही नहीं।यहां कुल 8 पंडित हैं। ये लोग खानदानी तौर पर पास के सोनई गांव के जोशी और कुलकर्णी खानदान से ही होते हैं। इन खानदान के अलावा कोई और मंदिर का पुजारी नहीं हो सकता है। मंदिर को गांव का एक ट्रस्ट चलाता है जिसमें 11 लोग होते हैं। सरकार के पास उनके नाम जाते हैं जिन पर महाराष्ट्र शासन अपनी आखिरी मोहर लगाता है। यहां के पुजारी मीडिया को कैमरे पर इंटरव्यू नहीं देते हैं। बिना कैमरा मुझे पुजारी जी के पास ले जाया गया।उनसे मैंने पूजा विधि के बारे में पूछा। सुबह और शाम वाली आरती में गणेश जी की आरती के बाद शनि की आरती गाई जाती है। दोपहर में सिर्फ शनिदेव की आरती गाते हैं। मैं दोपहर की आरती में शामिल हो गई। देखा कैसे लोग शनि देव को टकटकी लगाए देख रहे हैं और हाथ जोड़कर कामना कर रहे हैं।

आरती से पहले जल से शनिदेव को नहलाया गया। फिर पंचामृत से स्नान करवाया गया। उसके बाद फिर से जल उन पर डाला गया। इसके बाद तेल डाला गया। फिर चंदन से लेप किया गया।इनका चंदन विशेष तौर पर पंढरपुर से मंगवाया जाता है। शनिदेव को जामुनी रंग की धोती पहनाई गई। गेंदे, ऑर्किड और गुलाब के फूलों की भारी भरकम माला पहनाकर शनिदेव का श्रृंगार किया गया। अंत में धूप, कपूर और ज्योत जलाकर उन्हें नैवेद्य दिए गए। शनिदेव को विशेष तौर पर किसी व्यंजन का भोग नहीं लगता है। भक्त जो फल और मिठाई चढ़ाते हैं या फिर मंदिर परिसर में जो भोजन पकता है उसका ही भोग उन्हें लगता है।

गांव वासी पूरी तरह से शनि रंग में रंगे हुए हैं। मंदिर के चलते यहां रोजगार भी है। मंदिर के चलते गांव के लोगों की दिनचर्या महाराष्ट्र के दूसरे हिस्सों से अलग है। प्रो. देसाई बताते हैं कि शनिवार वाले दिन शनि शिंगणापुर के लोग व्रत रखते हैं। हर शाम को मंदिर में आरती के बाद ही उनके घरों में चूल्हा जलता है। पहले शनि भगवान को भोग लगता है तब गांव के लोग खाना खाते हैं।इस गांव के लोग शनि की ढैय्या या साढ़े साती को नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि शनिदेव हमेशा शुभ फल देते हैं, बशर्ते कर्म सही होना चाहिए।

शनिदेव की शिला कहां से आई ? 

प्रो. देसाई एक कहानी सुनाते हैं- इस इलाके में एक दफा बाढ़ आ गई थी। सब कुछ बह गया। चारों ओर पानी ही पानी था। यहां के स्थानीय पानस नाले में एक शिला बहकर आ गई। शिला एक पेड़ से अटक गई। यह शनि शिंगणापुर गांव से 150 मीटर की दूरी पर हुआ।जब बाढ़ का पानी नीचे उतरा तो कुछ चरवाहों की नजर पेड़ से अटकी हुई काले रंग की शिला पर पड़ी। उन्होंने उसे उठाने की कोशिश की, लेकिन हिला भी नहीं सके। उनमें से एक चरवाहे ने उस शिला को डंडों के सहारे से उठाना चाहा तो शिला में से खून निकलने लगा। सब डर गए और गांव की ओर भागे। उन लोगों ने गांव वालों को इस बारे में बताया। यह खबर पूरे गांव में फैल गई।गांव वाले इस शिला को देखने के लिए पहुंचने लगे। उन्होंने मशविरा किया कि अगली सुबह तक सोचेंगे कि इस शिला का क्या करना है। उसी रात को गांव के एक पाटिल के सपने में शनि भगवान आए और कहने लगे कि मैं शनिदेव हूं। मुझे यहां से उठाने के लिए दो बैलों का जोड़ा चाहिए, जो रिश्ते में मामा-भांजा होने चाहिए। इनके साथ ही कोई मामा-भांजा का जोड़ा ही उन बैलों को हांककर मुझे लेने आए और लाकर गांव में स्थापना करे।अगले दिन पाटिल ने गांववासियों को इस सपने के बारे में बताया। फिर क्या था। दो ऐसे बैलों की खोज की जाने लगी जो रिश्ते में मामा भांजा हों। खैर ऐसा एक बैलों का जोड़ा मिल गया। फिर एक मामा-भांजा इंसान को खोजा गया। इस प्रकार शनिदेव के मंदिर की स्थापना की गई।हालांकि, बहुत पहले तो शिला ऐसे ही रखी थी। बाद में इसके लिए चबूतरा बनवाया गया। चबूतरा भी पास के सोनई गांव में जब लोधा सेठजी के घर बच्चा पैदा हुआ तो उन्होंने मन्नत को पूरा करने के लिए बनवाया था।कहते हैं कि इस मंदिर में अगर मामा-भांजा एक साथ दर्शन करने के लिए जाते हैं तो शनिदेव का आशीर्वाद कई गुना ज्यादा मिलता है।

शनि के जन्म से जुड़ी एक और कहानी

शनि देव को सूर्य और संज्ञा का पुत्र माना जाता है। संज्ञा दक्ष प्रजापति की बेटी थी। वो अपने पति सूर्य का तेज और गर्मी को झेल नहीं पाती थीं। एक दिन उन्हें लगा कि जप-तप और व्रत से उन्हें अपने तेज को बढ़ाना चाहिए। तभी वह सूर्य की तपन को सहन कर पाएंगी।

संज्ञा की तीन संतानें हुईं। वैवस्थ मनु, यमराज और यमुना। एक दिन संज्ञा को लगा कि सूर्यदेव काे बिना बताए उन्हें अपने पिता के घर जाकर तप करना चाहिए। इसके लिए उन्होंने अपने जैसी शक्ल की एक महिला बनाई, नाम रखा सुवर्णा। इसके बाद तीनों बच्चों की जिम्मेदारी सुवर्णा को दे दी। संज्ञा ने उसे आगाह भी किया कि किसी को यह सच पता न लगे कि तुम कौन हो। यानी तुम संज्ञा नहीं सुवर्णा हो। ऐसा बोलकर संज्ञा अपने पिता के घर चली गई।

जब दक्ष ने बेटी से मायके आने का कारण जाना तो वे दुखी हो गए। डांटकर उन्होंने संज्ञा से कहा कि बिना बुलाए पिता के घर आना गलत है। इसलिए इसी वक्त तुम यहां से अपने पति के घर चली जाओ। संज्ञा ने पिता की नहीं सुनी। वह पति के पास नहीं गई। बल्कि किसी एकांत जंगल में चली गई। उसने वहां जाकर तप शुरू कर दिया।उधर सूर्य और सवर्णा के तीन बच्चे और हो गए। इनमें से एक थे भगवान शनि। सूर्य को कभी भी सुवर्णा पर शक नहीं हुआ कि वह कौन है।

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